
ख़बर अच्छी नहीं है। रेयान इंटरनेशनल स्कूल, गुरुग्राम में एक किशोर बच्चे ने अपने स्कूल में होने वाली पेरेंट-टीचर मीटिंग और परीक्षा को टालने के लिए जो किया उसे जान कर भी अगर माताओं और पिताओं को अपने बच्चे में सिर्फ प्रद्युम्न (वह निरीह बच्चा जिसकी गला रेत कर स्कूल के बाथरूम में ह्त्या कर दी गई थी) ही दिखा हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए और फिर उनका खुद का बच्चा किसी का हत्यारा थोड़े ही हो सकता है। वो तो मासूम, भोला-भाला, संस्कारी और कोमल ह्रदय वाला ही होगा। आखिरकार बच्चे तो निरीह और मासूम ही होते हैं न?
और बच्चे मासूम क्यूँ नहीं होंगे? आज के सभी माताओ-पिताओं ने अपने बच्चों के बचपन को फलने-फूलने देने के लिए क्या कुछ नहीं किया है। टीवी, मोबाइल, स्मार्ट-फ़ोन, गेमिंग गैज़ेट्स, वॉकमैन, लैपटॉप, इंटरनेट, डीएसएल, वाई-फाई, ब्लू-रे, डोंगल, कार्टून नेटवर्क, शिन-चैन और क्या -क्या नहीं उन्हें दिया जिससे कि वो अच्छे से बड़े हो जाएँ इनकी बदौलत। बच्चे तो बच्चे हैं, पर क्या इतने बड़े होकर, ख़ूब पढ़े होकर भी नादान होने का अभिनय करते अच्छे लग रहे हैं आप? ज़रा रुक कर विचार कीजिए। क्या आप का बच्चा वास्तव में ‘प्रद्युम्न’ है या फिर आप किसी ऐसी अनहोनी के इंतज़ार में बैठे हैं जो आप के साथ-साथ सारे देश को दोबारा सोचने पर मज़बूर कर देगा कि ‘आज के हमारे बच्चों को हुआ क्या है?’

याद है आप को? जब शुरू-शुरू में दूरदर्शन पर शाम को फ़िल्मी नाच-गानों का वो कार्यक्रम ‘चित्रहार’ प्रसारित होना शुरू हुआ था तो कैसे टीवी की दुकानों, घरों की खुली खिड़कियों के बाहर लोगों की भीड़ इकठ्ठी होकर रास-रंग के इस साप्ताहिक रात्रि-पर्व का मज़ा लेती थी। बेशक़ उस भीड़ में बच्चे कम.. युवा व प्रौढ़ ज़्यादा होते थे। अब प्यासे को कुएं तक जाने की भी ज़हमत नहीं उठानी थी सिनेमा-हॉल घर के अंदर जो पहुँच गया था। टीवी के टिमटिमाते मेघों से मनोरंजन के व्यापारी फिल्म-निर्माताओं और निर्देशकों द्वारा प्रणीत नव-युगीन संस्कारों की फुहार में एक तरफ आज के माँ बापों की फसल तैयार हो रही थी और उनके बुजुर्ग गहरी साँसे भर-भर के चित्रहार को ‘चरित्र-हार’ का ख़िताब दे रहे होते थे। उस समय के बुजुर्गों की पीढ़ी जो मोटे-मोटे चश्मे लगाए गीता, रामायण, कल्याण, भागवत, कादम्बिनी और धर्मयुग बाँचते हुए अपने बच्चों की शादी और नाती-पोतों के आने का इंतज़ार कर रही थी; शायद सही थी जब उस पीढ़ी ने चित्रहार को चरित्रहार कहा। और तब भी जब उसने उस समय के युवाओं और बालक/बालिकाओं को यह कहा कि “तुम लोगों को टीवी की बीमारी हो गई है। अगर यही सब नाच-गाना देखोगे तो अपने बच्चों को क्या शिक्षा दोगे। क्या उन्हें नाचने-गाने वाला बनाओगे?” हमारे बुजुर्ग सही साबित हुए। तब के ‘चित्र-हारी/डेबोनायरी’ समयांतर में अभिभावक बन ही गए और उनमे से ज़्यादातर अपने बच्चों और बच्चियों के अश्लील-कामुक नाचगाने को देख-सुन ताली बजाते नज़र आते हैं। और दलील यह कि समय बदल गया है। बुजुर्ग और पुरानी कहावत ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय’ दोनों सही थे।
पर यक्ष प्रश्न यह है कि “आज के बच्चों को क्या हो गया है?” अगर कल के बच्चे और जवानों को ‘टीवी’ नामक सिर्फ एक बीमारी हुई थी तो बदले समय ने किसी को कहीं का नहीं छोड़ा। आज हालात सचमुच नाज़ुक़ हैं – क्यूँकि अब तो बीमारियों की संख्या और उनकी तीव्रता हद तक बढ़ गईं हैं और इलाज़ के बारे में सोच-सकने वाले माँ-बापों की हालत भी मरीज़ों से बेहतर कतई नहीं नज़र आती। रहे बुजुर्ग दादा-दादी, नाना-नानी तो उनका पत्ता ही साफ़ कर दिया शहरीकरण ने। बेचारे वो तो दूसरे दर्जे के शहरों और पिछड़े कस्बों में अपनी जिंदगी भर की कमाई जो उन्हों ने अपने इन्ही आजके माँ-बापों के भविष्य के लिए घर बनाने में लगा दी थी – उसी घर की चौकीदारी करते, अपने क्लास वन शहरों या विदेशों में बसे खुशहाल बच्चों के सुन्दर भविष्य व अपने नाती-पोतों को कहानी सुनाने के सपने देखते हुए व उनसे मिलने के कभी ख़त्म न होने वाले इंतज़ार की वास्तविकता से जूझते दीखते हैं। तो प्रश्न तो यह भी उठता है मन में कि ‘क्या हो गया है आज के माँ-बापों को?’ कहीं इन्ही की संस्कारहीनता, असंवेदनशीलता और अंधस्वार्थों के शिकार तो नहीं हो रहे आज के बच्चे?

कितना ही अच्छा हो कि बच्चे इंटरनेट, टीवी, व्हाट्सएप्प, विडिओ-गेम्स, स्काइप और हाइक मेसेंजर् पर अपने आने वाले जीवन का पाठ पढ़ें पर ऐसा हो कैसे सकता है। ये दरवाजे हमने खोले तो इसी लिए थे कि बच्चों की कल्पना की उड़ान को पंख लगादें पर ऐसा हुआ नहीं। कुत्सित, वासनापूरित, नकारात्मकता और अनजाने प्रतिशोध से भरे व्यवसायी लोगों ने इन्ही दरवाजों के आगे अपनी-अपनी दुकानें लगा लीं – इन दुकानों में शिक्षा, ज्ञान और संस्कारों के अलावा सब मिलता है – वो भी उत्सुक बाल-मन को लुभाने वाले सतरंगे लिफाफों में। कोई जिस्म बेच रहा है, कोई ड्रग्स, कुछ गेम्स के नाम पर हिंसा और कोई दोस्ती के नाम पर सेक्स-पार्टनर्स की दलाली। और तो और कोई अपनी सफलता इससे नाप रहा होता है कि उसका गेम खेल कर कितने बच्चों ने आत्महत्या की या फिर किस हद तक अपने माँ-बाप, भाई-बहन परिवार को नीचा दिखाया या कष्ट पहुंचाया। अब तो प्रश्न ही बदल गया। अब तो निश्चित ही पूछना पड़ेगा ‘क्या हो गया है आज के आदमी को?
यदि आप इस उम्मीद में इसे आगे पढ़ना जारी रख रहे हो कि इन प्रश्नो का उत्तर मैं देने वाला हूँ तो क्षमा कीजिये – पढ़ना बंद कर कुछ कीजिये। क्या आपने पूछा “क्या करें”? अरे! आप सचमुच इतनी समझदारी दिखायेंगे मुझे उम्म्मीद न थी .. लेकिन अब पूछा है तो उत्तर तो सुन ही लीजिए – मैं कहता हूँ करना कुछ भी नहीं है , सब अपने आप ठीक हो जायेगा। आप तो बस अपने व्हाट्सप्प और फ़ेसबुक मित्रों को यह लेख फॉरवर्ड कर दीजिए और बस हो गया काम। आप के मोबाईल से निकला यह फॉरवर्ड-रुपी तीर परिवर्तन का शंखनाद है। सब हो जायेगा इसके बाद अपने आप। इतना ही पर्याप्त भी है। फिर इससे ज़्यादा कुछ करने का समय भी तो होना चाहिए और वो तो है भी नहीं आप के पास। सही है न?
अब ये पढ़-सुन कर अगर मुझे गाली देने का मन कर रहा हो तो जरूर दीजिए पर अपने बच्चों को अपने निकट बुला लीजिये और फिर उड़ेलना शुरू कर दीजिए अपने संस्कारों के उफ़नते सैलाब को मेरे ऊपर… खूब ऊँची आवाज़ में। संकोच मत कीजियेगा क्यों कि आख़िरकार अपने बच्चों को यह गाली-गलौज करना भी तो आप को ही सिखाना है!
शिवोहम!
Thank you for bringing this up AD!
It seems that over the course of last 70 years only the nature of challenges have changed for us as a nation. From food insufficiency(1947) to moral deficiency(2017), the nature of problem has changed. Parents need to keep a vigil on drugs abuse, alcoholism and many of the sorts.
As prosperity increases, we are ushering in an era where “everything around us seems to be pleasure giving, but the man is depraved” – one fallout which Vivekananda dreaded as India embraced the materialism of the west.
Somehow, we didn’t show the discrimination to embrace the positives of the west and keep our soul values intact.
Pranam,
Niraj
Pranam Acharya ji , main aapki baat se puri tarah sehmat hu , mujhe padh ke thoda accha laga ki koi aur bhi is tarah se dekh raha hai , main khud uppar likhi gayi chizon main magna rehta tha (kuch had tak abhi bhi hu) , lekin dheere dheere samajh main aa raha hai ki yeh cheezen mere mann k bhatakav ka karan ban rahi thi , isiliye pehle ke mukable maine in suvidhaon ka seevan khub kam kar diya hai , lekin usse bhi ashcharyajanak yeh hoga ki , apki peedhi ko toh apke maata pita samjhane ke liye the , lekin aaj paristhiti aisi ban padi hai ki mujhe apne maata peeta aur badon ko samjhana padta hai ki in digital services main jyada magn mat ho , mere ghar waalon ko mujh par ashcarya hota hai ki parivar ka sabse tech savvy sadasya tech-hater kyon hogaya hai . Internet aur social media se ho rahe chaos ka upay karna bahut mushkil hai kyunki ab jankari k sanchar hone ki gati , sadharan manushya k jankari process karne ki shamta se jyada hogayi hai , iska asar yeh hua hai ki ab ham har taraf se jankari(film,tv,news,media,social media interaction) se ghir gaye , ya yun kahe ki hum par information bomabardment kiya jaata hai , itni jyada information paa kar manushya ko judgement (kaunsi jankari grahan kare , kaunsi nahi ) karne main takleef hoti hai , aur isi galat judgement se prabhavit hokar manushya asal duniya main dusro ke saath interact karta hai , ab sochiye ek samaj karodo confused manushya ek saath reh rahe hai , result toh chaos hi hoga.
Dusra karan , jinke haath main jankari sanchar karna hai (badi badi corporations) unhe paise kamane aur logon pe control rakhne main bahut interest hai , in corporations k paas itna control hai ki voh yeh tak nirnay le sakte hai ki janta ki jholi main kya information girani hai aur kaunsi information rokni hai , facebook news feed iska sabse bada example hai. Jab information par aisa control rehta hai toh phir public opinion jhoot se badla ja sakta hai aur hamare desh par toh pura cultural attack ho raha hai isi k madhyam se (Puri ek pidhi ka hi brainwash kar diya gaya hai)
In sabka upay ek hi hai(mere hisab se) , har ek manushya apne andar jhank kar dekhna hoga , khud se sawaal puchne honge.