आचार्य अज्ञातदर्शन आनंद नाथ, योग-तन्त्र आचार्य, संस्थापक – द शक्ति मल्टीवर्सिटी
शिवोहम!
प्रिय बन्धुवर,
आपने यदि यह प्रश्न पूछा है तो अवश्य ही आप योग के प्रथम तीन सोपानों (यम, नियम, आसन) को पर्याप्त समय देते हुए उनमे सिद्धहस्त या कम से कम कुछ सफलता प्राप्त हो चुके होंगे, ऐसी आशा करता हूँ। परन्तु यदि ऐसा नहीं किया है तो योग-शास्त्रों में संकलित ऋषियों एवं योगियों के वचनों अनुसार अभी आप प्राणायाम के अभ्यास की अर्हता से वंचित हैं।
मुझे आश्चर्य होता है कि ऐसे लोग जो योग-विज्ञान में एमo एo की उपाधि से सज्ज हैं वो यह कह रहे हैं कि “योग का अभ्यास त्वरा से मन्दता की ओर होता है’ यह तो अति ही हो गई। भगवान पतञ्जलि के योग-दर्शन का मुख्य उद्देश्य ही जब स्वभाव से स्वरुप में ‘स्थिति’ का है और पहले ही सूत्र में चित्त की वृत्तियों की गति के निरोध को योग का लक्ष्य बताया गया है तो जानबूझ कर गतिशीलता में क्यों अपने मन एवं शरीर को झोंकने का प्रयास करने की सलाह दी जाये। और हाँ, प्राणायाम से पहले का सोपान क्या है? उत्तर है – आसन। चलिए अब इसकी भी समीक्षा करें। आसन के बारे में महर्षि कहते हैं “स्थिर सुखं आसन” अरे! ये क्या? यहाँ भी स्थिरता की बात, गति की नहीं!
अब बात करते हैं उन महानुभावों और योगिनियों की जो कह रहे हैं कि आप भस्त्रिका प्राणायाम से प्रारम्भ करें, फिर ये करें फिर वो करें आदि-आदि… देवीयों (योगिनियों) एवं सज्जनो (योगियो) ! आप किस योग-शास्त्र या ग्रन्थ में वर्णित क्रम के बारे में कह रहे हैं? मुझे अवश्य ही बताएँ क्यूंकि मैं योग-तन्त्र का वह शिक्षक (आचार्य) हूँ जो अनवरत सीखने की उत्कण्ठा रखता हूँ। परन्तु मेरे अपने गुरु-परम्परा के प्रचलित अभ्यास एवं किसी प्रामाणिक ग्रन्थ (मेरे पढ़े हुए) में ऐसा कोई क्रम (कि आप भस्त्रिका से शुरू करें आदि-आदि) प्राप्त नहीं हुआ है वरन यह सूत्र अवश्य कहा गया है कि किसी भी प्राणायाम को आप न करें यदि आपकी नाड़ी-शुद्धि नहीं हुई है। परन्तु आप ऐसे तो यह तथ्य मानेगे नहीं तो एक श्लोक का उद्धरण भी दे देता हूँ। आशा करता हूँ योग-शास्त्र की मौलिक भाषा (संस्कृत) का थोड़ा-बहुत ज्ञान आपको होगा ही। तो पढ़िए –
सामवेद की योगचूड़ामणि उपनिषद में वर्णित प्राणायाम साधना के पूर्व की तैयारी की अनिवार्यता के सम्बन्ध में यह श्लोक।
श्लोक कहता है –
यमश्चैव नियमश्चैव, आसनेश्च सुसंयतः |
नाडीशुद्धिम् च कृत्वादौ, प्राणायामं समाचरेत् ||
इस अर्थ यह है – एक साधक सर्वप्रथम यम-नियम पारायण करके आसन में स्थिरता प्राप्त करे। तत्पश्चात नाड़ी-शुद्धि को पूर्ण करके ही किसी भी प्राणायाम का अभ्यास प्रारम्भ करे।
इसका अर्थ क्या निकला? इसका अर्थ यह हुआ कि यदि आपने अब आसन-सिद्धि (एक प्रहर अवधि) तक अपनी यात्रा कर ली है तो अब अपनी नाड़ी-शुद्धि का संकल्प लीजिये और इसमें तब तक लगे रहिये जब तक नाड़ी-शुद्धि के लक्षण आपमें प्रकट न होने लगें। नाड़ी-शुद्धि के लक्षण क्या हैं? इसका उत्तर भी उन्ही शास्त्रों में वर्णित है जिसके ज्ञान का प्रयोग (गलत-सही) कर के दुनिया भर में लाखों की संख्या में सर्टिफाइड योगा-टीचर्स (क्षमा करें उनके लिए मैँ योगाचार्य शब्द का प्रयोग नहीं कर पा रहा हूँ) लोगों के कब्ज़, रक्त-चाप, मधुमेह, घुटने और पीठ के दर्द आदि का इलाज करके करोड़ों कमाने की होड़ में लगे हुए हैं। कोई ही विरला कदाचित ‘चित्त-वृत्ति निरोध’ के लिए योग का प्रचार व साधन करता है। फिर भी यही आपको शास्त्रों में नाड़ी-शुद्धि के लक्षण खोजने का श्रम नहीं करना है तो आप मुझसे व्यक्तिगत रूप से पूछ सकते हैं।
चलिए प्रश्न पर वापस आते हैं। तो यह शास्त्र-सिद्ध वचन है कि नाड़ी-शुद्धि पूर्ण किये बिना कोई भी अन्य प्राणायाम नहीं करना चाहिए और आप पूछेंगे कि यदि शास्त्र के इस आदेश का पालन नहीं किया गया, तो ?
इस पर योग के सभी प्रामाणिक शास्त्र (पुनः शास्त्र पढ़िए) कहते हैं –
हिक्का कासस्तथा श्वासः, शिरोकर्णाक्षि वेदना |
भवन्ति विविधा रोगाः, पवनस्य व्युत्क्रमात ||
अर्थ है – हिचकी, खांसी, दमा, शिर, कान एवं आँख की वेदना (पीड़ा) एवं विभिन्न प्रकार के रोग वायु के व्यतिक्रम से उत्पन्न हो जाते हैं।
एक शिक्षक का कर्त्तव्य है कि वह अपनी क्षमता एवं ज्ञान के अनुसार शास्त्रोक्त ज्ञान का पारायण एवं प्रसार करे सो यह तो मैंने कर दिया। अब आप पहले कपालभाति करें, भस्त्रिका करें या कुछ भी – मैं या जानता हूँ कि इस ज्ञान को स्मरण रखते हुए भी आप अपने व्यक्तिगत निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र हैं।
शिवोहम!
Agyaatarashan Anand Nath
आचार्य श्री अज्ञातदर्शन आनंद नाथ जी के quora पर दिए गए उत्तर से !
Dear Acharyaji,
This is the best guidance on this topic.
Shivoham!