
शिवोहम!
प्रिय स्वाति,
ऐसा प्रश्न मेरे देखे तीन प्रकार के लोग करते हैं –
१. एक तो वो जो ध्यान करने के बारे में मन बना रहे हैं और दूसरों के मन-लुभावन, चमत्कारिक अनुभवों को सुनकर (कम से कम वो तो ऐसा ही सोचते हैं) उनका ध्यान करने का विचार पक्का होगा।
२. वो लोग जो अभी ध्यान कर रहे हैं और उन्हें कुछ अनुभव नहीं प्राप्त हो रहे या अनुभवों की तड़ित-प्रभा ने उनकी चेतना और प्राणों को अभी तक पूर्ण-रूपेण झंकृत व आलोकित नहीं किया है।
३. ऐसे लोग जो प्रश्न पूछकर अपनी अभिरुचि को सार्वजनिक कर अपने आध्यात्मिक होने का, या अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करना चाहते हैं।
बिना इस बात को जाने ही कि आप किस मनःस्थिति में इस प्रश्न को कर रही हैं, मैं इन तीनो प्रकार के लोगों के लिए उत्तर देने का प्रयास करता हूँ, जिससे कि आप अपने संदर्भित उत्तर से वञ्चित न रह जाएं।
यदि आप पहले बिन्दु में वर्णित गुणधर्मों से संबद्ध है तो सुनिए मेरा उत्तर –
आप ध्यान का सही अर्थ समझें और फिर अपना मन बनायें न कि उन चमत्कारिक अनुभवों (जैसे प्रकाश का दर्शन, दिव्य सुगन्ध की प्राप्ति, शरीर का अनिर्वचनीय कम्प, अन्तः-प्रेरणा से भौतिक जगत के सम्बन्ध उत्पन्न ज्ञान, सम्भोग के चरम सा अनवरत आनंद आदि) को लक्ष्य बनाएं जिन्हे अल्प-ध्यानी जन कदाचितपाकर गदगद हो उठते हैं और फिर पुनः-पुनः उन्ही अनुभवों की पुनरावृत्ति के लिए सम्पूर्ण जीवन खपा देते हैं। सभी श्रेष्ठ गुरुजन कहते हैं कि बीच के सारे चमत्कारिक अनुभव तुच्छ एवं सारहीन हैं तथा ध्यान का अंतिम एवं परम लक्ष्य है – अपने सच्चे स्वरुप का अनुभव। इस अनुभव के उपरान्त कुछ विशेष घटनाएं होती हैं, उनमे से मुख्य ( दो-तीन ) मैं बता देता हूँ – पहलातो यह होता है कि मृत्यु का भय जाता रहता है, दूसरा ईर्ष्या, क्रोध, अहंकार एवं कामादि आपको गहराई से नहीं छू पाते। तीसरा – ऐसा व्यक्ति क्षुब्ध नहीं होता अर्थात हानि-लाभ, जय-पराजय, निन्दा-स्तुति, यश-अपयश आदि में वह भीतर सम (आनन्द) रहता है।
तो अर्थ यह निकला कि यदि आप ध्यान के प्रति आकृष्ट हुई हैं तो कृपया इन तुच्छ अनुभवों के लिए तो इसे बिलकुल न करें।
यदि आप दूसरे बिन्दु से सम्बंधित हैं तो फिर आप के लिए मेरा उत्तर अलग होगा। कुछ इस प्रकार –
एक ध्यान एवं साधना आदि करनेवाले साधक/साधिका को अपने अनुभव किसी से भी साझा नहीं करने चाहिए। ऐसा मैं नहीं कह रहा वरन समस्त गुरुमण्डल का यही कथन है। एक और मनोवैज्ञानिक बात भी है, यदि कोई साधक/साधिका दूसरों से उसके ध्यान का अनुभव सुनने की लालसा लेकर बैठा हो (हालांकि यह आकांक्षा करना नियमों के विरुद्ध है) और मान लें कि उसे किसी ने (परम्परा एवं गुरु-प्रदत्त नियमों को ताक पर रख कर) अपने अनुभव बता भी दिए तो अब जिसने उत्तर सुना उसकी साधना में सब कुछ उलट-पलट हो जाने वाला है। क्यों? वह इसलिए, कि अब वह भी उन्हीं अनुभवों को अपने ध्यान में उतारने का प्रयास करने में लग जायेगा और ध्यान का एक नियम है – अनुभव के लिए ध्यान नहीं किया जाता वरन ध्यान करने में अनुभव होते हैं।
तो अर्थ यह निकला कि यदि आप ध्यान कर रही हैं तो अपने गुरु से बातचीत करें उनसे अपनी समस्या / अनुभव / या जो भी कुछ आप चाहें बतलायें और उनके बताये मार्ग पर चलकर अपना कल्याण करें।
अब अंतिम अर्थात तीसरे बिंदु से सम्बंधित उत्तर –
आप मुझसे मेरे ध्यान के अनुभव इसलिए पूछ रहे/रही हैं कि लोगों को (और quora को भी) पता चले कि आप बहुत अच्छे प्रश्न कर सकते/सकती हैं तो सुनिए – क्षमा करें! आप शायद इस तथ्य को अनदेखा कर रहे/रही हैं कि किसी भी अनुभव को शब्दों में कहा नहीं जा सकता। मुझे बहुत अनुभव हुए, चूंकि मैं ध्यान करता हूँ, साधना करता हूँ। आप भी ध्यान-साधना में उतरिये और स्वयं अनुभव कीजिये।
जय अम्बे श्री!
-आचार्य अज्ञातदर्शन आनंदनाथ
Quora पर दिए गए उत्तर से