चित्त की एकाग्रता के लिए क्या उपाय करें… ध्यान तो एक क्षण भी नहीं लगता..
सादर प्रणाम..
प्रियंका

प्रियंका!
चित्त शब्द, साधारण भाषा में मन का पर्यायवाची हो चुका है अतः यह प्रश्न ठीक ही है। चलिए कुछ चर्चा हो जाये इस बात पर कि चित्त की एकाग्रता के लिए क्या करें। परन्तु इससे पहले कि मैं मन की एकाग्रता के विषय में कुछ कहूं यह उचित होगा कि हम ‘एकाग्रता’ क्या है, इस बात को भी समझ लें।
‘एकाग्रता’ हमारी चित-शक्ति व इच्छा शक्ति का मन पर वह ‘प्रभाव’ है जो हमें हमारे मन को नियंत्रण में रखने में सहायक होता है। यहाँ यह बात साफ़ हो जानी चाहिए कि ‘एकाग्रता’ मन का गुण नहीं वरन इसकी एक विशेष क्रियाशील अवस्था है जिसमे मन का स्वामी (अर्थात हम) मन को नियंत्रित कर रहे होते हैं। मन से एकाग्रता की या अक्रियाशीलता की आशा करना वैसे ही व्यर्थ है जैसे किसी छोटे बालक से यह उम्मीद करना कि वह बिना कुछ किये एक स्थान पर बैठा हुआ आप के दिए समस्त दिशा निर्देशों का पालन करेगा। इस उदाहरण से समझें तो मन यदि वह चंचल बच्चा है तो हम उसके अभिभावक या माता-पिता हैं। तो यह तो हुई एकाग्रता से जुडी हुई भ्रान्ति की निवृत्ति और हां ! बिना इस भ्रान्ति की निवृत्ति के आगे की चर्चा निःसार, दिशाहीन व निष्फल होती।
ऊपर के उदाहरण से यह साफ़ हुआ होगा कि मन को नियंत्रित करने में ‘मन’ की गुणवत्ता की मुख्य भूमिका है। उसके स्वभाव, उसके संस्कार व भूत काल में अर्जित प्रवृत्तियां तथा स्मृतियाँ आदि ही यह निर्धारित करती हैं कि हमारे प्रयास सफल होंगे या नहीं तथा हमें उसे संस्कारित, अनुशासित और अपने अनुसार उपलब्ध करने में कितना अल्प या दीर्घकालीन व गहन प्रयत्न करना होगा। अब फिर से पुराने उदाहरण पर चलें – एक बच्चा, वर्षों से जिसकी हर मांग, हर जिद, हर पागलपन को पूरा करने में उसके माता-पिता, उसका सारा परिवार लगा हुआ होगा क्या वह यह स्वीकार करेगा कि उसे कोई नियंत्रित करे? यदि आप उसकी इच्छा के विपरीत कोई निर्देश या आग्रह करेंगे तो वह नैसर्गिक रूप से न केवल उसका विरोध करेगा वरन क्रोध से भरेगा, तोड़फोड़ करेगा, अपना सर जमीन पर पटकेगा और हो सकता है कि उचित-अनुचित व्यवहार की समझ न हो तो वह आप के विरुद्ध हिंसा भी कर सकता है। सही है कि नहीं? तो क्या हम मन को नियंत्रित करने को अब कुछ नहीं कर सकते? और कर सकते हैं तो आख़िर क्या किया जाना चाहिए? क्या इस पर चर्चा हो? नहीं ! अभी नहीं।
मन की एकाग्रता के पहले एक स्वस्थ मन के निर्माण की अनिवार्यता है। इससे पहले कुछ विशेष बातें ख्याल में लेने जैसी हैं। इन सभी बिंदुओं को एक के बाद एक अपनी बुद्धि में स्थिर कर लीजिए। हालांकि मैं इन बिंदुओं को अति-सूक्ष्म रूप से रख रहा हूँ परन्तु यह स्मरण रहे कि एक भी पायदान या सोपान आप नहीं छोड़ सकते। एक और बात – यही सम्पूर्ण योग-शास्त्र एवं तंत्र शास्त्रों में छुपी हुई, स्वस्थ मन (ऐसा मन जिसका नियंत्रण सहज हो और वह आप के निर्देशों का पालन करे) का निर्माण करने की, यह क्रमबद्ध प्रक्रिया है। वैसे तो मैं यम-नियम की चर्चा भी कर सकता था परन्तु नहीं, इसे दूसरी तरह से पकड़ने का प्रयास करते हैं। एक एक सोपान को देखें और समझें।
पहला सोपान – मन की मूल या स्वाभाविक वृतियों का सतत नियंत्रण। यह हमारे मन में एक सुनियोजित तर्क की क्षमता का विकास करता है तथा समय आने पर सही निर्णय लेने में हमारी सहायता करता है।
अब आप पूछेंगी की मन की कौन से स्वाभाविक वृत्तियाँ हैं जिनका सतत नियंत्रण हमें करना है? तो सुनिए – आहार, निद्रा व मैथुन यह तो वह आधारभूत व निचले स्तर की प्रवृत्तियाँ हैं जिन पर नियंत्रण से ही हम मन को अनुशासित करने व उसके स्वास्थ्य के निर्माण का श्री गणेश करते हैं, अतः यह तोअवश्य ही करना होगा। यहाँ आहार से तात्पर्य समस्त इन्द्रियों के सम्बद्ध विषयों से हैं – रसना कहती है आज गोलगप्पे खाने को चाहिए, मिर्च चाहिए, मसाला चाहिए। आँखें कहती हैं – ये सुन्दर वस्तु, व्यक्ति हमें दिखाओ बस! इन्हें मेरे सामने से हटाओ आदि। कान कहते हैं कि शान्ति चाहिए, सन्नाटा चाहिए, सुमधुर संगीत चाहिए आदि-आदि। इसी प्रकार से अन्यान्य इन्द्रियाँ अपने आहार मन के माध्यम से मांगती हैं। सब पर नियंत्रण वांछनीय है। इसी प्रकार निद्रा का तमस, मैथुन के लिए आतुरता, काम का उत्कट वेग भी वह वृत्तियाँ हैं जिनको संयम एवं अनुशासन से नियंत्रण में लाना परम आवश्यक है। अन्यान्य वृत्तियाँ हैं परन्तु यदि इतनी शुरुआत भी कर सकें एवं इनके संयम को एक दीर्घकालीन स्थिरता दे सकें तो मन की गुणवत्ता में परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगते हैं। अब मन उस बदले हुए बालक की भाँति समझो जो अब थोड़ा शान्ति से बैठ सकता है और हमारे दिए हुए निर्देशों को कम से कम अब सुनने को कुछ समय देता है।
दूसरा सोपान – तर्क या निर्णय लेने की क्षमता का सही नियंत्रण। इससे हमारे सम्यक उत्प्रेरण की भूमिका का निर्माण होता है तथा हम सही कारणों एवं सही उद्देश्यों के प्रति एक सहज आकर्षण की भावना से भर जाते हैं।
अब आप पूछेंगी तर्कशक्ति का क्या नियन्त्रण होगा? क्या हमें अपने निर्णय लेने की क्षमता को बंधन में या सीमाओं में बांधना होगा? इसका उत्तर “हाँ और ना” दोनों है! तर्क-शक्ति का विकास करना हमारा परम कर्त्तव्य है। इस जीवन को सम्यक रूप से बिना किसी व्यवधान के सुचारु रूप से चलाने के लिए तर्कशक्ति का सुसंयोजित व विकसित होना अत्यंत आवश्यक है और यह हमें अपने व्यवहार में तथा विचार में स्वतंत्रता का समावेश करने से प्राप्त होगा। परन्तु यदि हम अपने तर्कशक्ति का उपयोग उच्छ्रंखलता से केवल अपने स्वार्थसिद्धि एवं इन्द्रिय-सुखों के भोग एवं पूर्ति के हेतु करेंगे तो यह हमारे मन या चित्त पर अनुचित प्रभाव ही डालेगा। वास्तव में मर्यादाहीन व धर्मरहित तर्क शक्ति का प्रयोग हमारे मन-बुद्धि संकुल को कुंठा एवं तामसिकता से भर देगा और इसी तर्क शक्ति से हम अपने कई दुष्कर्मों का औचित्य को स्थापित करने लगेंगे जो न केवल आत्मघाती होंगे वरन उसके ऐसे दूरगामी दुष्परिणाम होंगे जो हमें हमारे मन का दास ही बनाकर छोड़ेंगे। ऐसे कुतर्क आपूरित, स्वार्थ-रञ्जित मन को स्थिर करना प्रायः असम्भव ही होता है। अतः परोपकार के लिए, धर्म के लिए, न्याय-संगति के लिए ही तर्क का उपयोग किया जाना चाहिए इसके उलट नहीं।
तीसरा एवं अंतिम सोपान – स्वस्थ मन की ऊर्जावान, उल्लसित व उत्प्रेरित अवस्थाओं का नियंत्रण (control of inspirations) ही एकाग्रता है। इस तीसरे सोपान पर पहुंचा व्यक्ति बहुत कुछ करने की शक्ति एवं आत्मप्रेरणा से सज्ज होता है और इसी समय उसे अपनी आकांक्षाओं एवं अभीप्साओं की गुणवत्ता एवं संख्या पर नियंत्रण करने की अत्यंत आवश्यकता होती है। कारण यह कि यदि इस समय आपने अपने स्वानुशासन से अर्जित अपनी मानसिक शक्ति को एक साथ बहुत सारी सुकल्पनाओं को साकार करने में लगा दिया तो संभवतः (यदि आप इस समय तक महामानव नहीं हैं तो) उनमे से किसी भी एक भी प्रेरणा को साकार नहीं कर सकें।
” एकै साधे सब सधै , सब साधे सब जाय।” मूल-मन्त्र की दीक्षा यहाँ एकाग्रता को ही इंगित करती है। बिना पहले दो सोपानो की सिद्धि के वैसे भी एकाग्रता की इच्छा करना बेकार है, एक दिवास्वप्न की भांति है। जिसने प्रथम दो सोपानो को छलांग लगा कर पार किया उस व्यक्ति का मन एकाग्रता के लिए परिपक्व नहीं होता।
अब योग की दृष्टि से देखिये – मन की पांच अवस्थाओं की बात यहां कही गई है –
१. मूढ़ – ऐसा मन किसी भी क्रिया में उद्यत नहीं होता – तमस व जड़ता की अधिकता के कारण इस व्यक्ति को किसी भी प्रकार से कोई नयी वृत्ति में प्रवृत्त नहीं किया जा सकता।
२. क्षिप्त – साधारण मनुष्यों का मन जो यहाँ से वहां इस विचार से उस विचार पर कूदता रहता है – टिकता कहीं नहीं। यह मन की साधारण अवस्था है जिससे लगभग सभी परिचित हैं।
३. विक्षिप्त – यह मन की वह अवस्था है जिसमे मन में एक विचार की बारम्बार पुनरावृत्ति होती है। साधारणतः हम इस अवस्था को एक नकारात्मक दृष्टि से देखते हैं परन्तु यह ऐसी नहीं है। वास्तव में ऐसी अवस्था ही आप के विकास में, लक्ष्य के भेदन में भी सहायक सिद्ध होती है परन्तु यहां मन के अनुशासित होने पर ही ऐसा संभव होता है। तो सफल होने के लिए इस अवस्था का ही सकारात्मक उपयोग किया जाता है। पर यह बात गाँठ बाँध लीजिये कि मन का स्वस्थ होना, स्वाभाविक-पाशविक वृत्तियों व तर्क-शक्ति का नियंत्रित होना अनिवार्य है अन्यथा यह विक्षिप्त अवस्था आप को किसी एक कार्य में लम्बे समय के लिए संलग्न नहीं रहने देगी। विक्षिप्तता सही उद्देश्य, व सही दिशा में हो तभी इसका विधायक उपयोग है अन्यथा यह अवस्था फलहीन, निम्न श्रेणी के घोर पाशविक कर्म कराने वाली एवं आत्मघाती सिद्ध हो सकती है। तीव्र काम, क्रोध, दुःखादि भी मन को विक्षिप्त अवस्था में ले जाते हैं परन्तु ऐसा तो सर्वथा अवांछनीय ही है।
४. एकाग्र – आप इसी अवस्था की प्राप्ति के लिए उद्यत हैं, है न ? तो योग की भाषा में यह भी समझ लीजिये कि एकाग्र अवस्था क्या है। मन के एक वृत्ति में स्थिर होने की अवस्था को एकाग्र अवस्था कहते हैं। यहां मन की वृत्ति स्थिर परन्तु वृत्ति में गर्भ में जो ‘प्रत्यय’ वह परिवर्तित हो सकते हैं, बल्कि ऐसा कहें कि परिवर्तिति होते रहते हैं तो अधिक उचित होगा। क्योंकि एक-वृत्ति में एक ही प्रत्यय का लम्बे समय तक बने रहना योग की भाषा में धारणा व इसकी सिद्धि ‘ध्यान’ कही गई है। तो यदि आप ध्यान करना चाहती हैं और इसके हेतु आप को अपने मन की वृत्तियों को समझना एवं नियंत्रित तथा स्थिर करना सीखना होगा। विधि तो मैं यहाँ विस्तार के भय से न दे सकूंगा परन्तु आप की यदि रूचि एवं रुझान हो तो किसी भी कार्यक्रम में आप आइये। विधि चर्चा व निर्देश सभी उपलब्ध होंगे।
५. निरुद्ध – इस अवस्था की विस्तार में चर्चा करना बेमानी ही होगी परन्तु संक्षेप में यदि कहें तो मन की समस्त वृत्तियों के संहार की अवस्था मन की निरुद्ध अवस्था कही जाती है। यही समाधि है।
हमारी दृष्टि तीसरी एवं चौथी अवस्था पर होनी चाहिए।
अंत में यब भी बताना चाहिए कि आप क्या करें। है न? तो सुनिए कि आप कहाँ से प्रारम्भ करें। वास्तव में एक स्वस्थ मन का निर्माण ही सही शुरुआत है। अतः इसी दिशा में कार्य करना श्रेयष्कर होगा। सर्व प्रथम इन्द्रियों का संयमन तथा चर्या में अनुशासन लाना ही उचित होगा। कुछ तप भी किया जा सकता है – तप अर्थात अपने लिए एक सहनीय परन्तु एक कष्टकारी या असुविधा की स्थिति का निर्माण करते हुए अपने मन की (सुविधा एवं सुख की ओर) गति को तर्क एवं इच्छा-शक्ति के द्वारा एक शुभ लक्ष्य (मन का संयमन) की प्राप्ति हेतु धीरे-धीरे अनुकूलित व नियंत्रित करने का उपक्रम।
एक बात और, किसी एक व्यक्ति को अपने जीवन में यह अधिकार देना जो आप को आदेश दे सके और आप उसके आदेशों का पालन प्रसन्नता से कर सकें यह परमावश्यक है – इस व्यक्ति को हम साधारण भाषा में निर्देशक, मार्ग-दर्शक या शिक्षक कहते हैं। अभी तो आपने हमें यह अधिकार दिया नहीं इसलिए इससे अधिक और कुछ दिशा देने का कोई अर्थ नहीं है। परन्तु जिज्ञासा भी एक अति शुभ संकेत, श्री गणेश है अतः आप के प्रश्न पर इतना समय दिया गया।
बताये गए बिंदुओं पर मनन व चिंतन करें। आप आगे बढिये, प्रगति पथ पर।
पथ पर पढ़ते हुए आगे के प्रश्न प्रत्यक्ष होने पर उनका समाधान व उत्तर देना गुरुमण्डल की परम्परा है, पालन होगा।
शिवोहम!
-आचार्य अज्ञातदर्शन आनन्दनाथ