स्वास्थ्य ही जीवन का आधार है और स्वास्थ्य अर्थात शरीर की रक्षा मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। शास्त्र कहते हैं “शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम” | इस दिशा में हमारे पुरातन मनीषियों ने कुछ बहुत ही वैज्ञानिक नियम दिए थे उसमे से एक था स्वच्छता का नियम और दूसरा संक्रमण की रोकथाम के व्याहारिक तरीके। स्वच्छता की विधियां तो सहर्ष स्वीकार हुई परन्तु संक्रमण से बचाव के तरीके की परिणति हुई एक ऐसी प्रथा में जिसमे इसे जाति के आधार पर प्रयोग किया जाने लगा। वह तरीके वह विधान सही थे परन्तु उनके गलत व जातिगत प्रयोगों से न केवल उन विधानों की दुर्दशा हुई, सिद्धांतों की अवहेलना हुई बल्कि अंततः भारतीय समाज में ही इसका घोर विरोध हुआ। इसी देश में समाज सुधारकों ने स्वास्थ्य-विज्ञान की अवहेलना करते हुए, वे सारे नियम ताक पर रख कर भी एक घुले-मिले समाज को वरीयता दी।
कोरोना जैसी महामारी के कारण समय का चक्र फिर से हमें वहीँ लाकर खड़ा कर गया जहां से हम चले थे। आज सन २०२० में लगभग १०० साल बाद हम फिर से छुआछूत को समझ रहे हैं, अपना रहे हैं। वही सब कर रहे हैं जो पहले करना गुनाह था – लोगों की अवमानना थी। पर हाँ अब यह सही मालूम पड़ता है – और प्रसन्नता की बात है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक दृष्टि दीखती है। चलिए देर से ही सही – एक गलत तरीके से अपनाये जाने वाली वैज्ञानिक प्रथा के पीछे की सत्यता को अब समाज की स्वीकृति है। परन्तु दुःख का विषय है कि हमने पहले इस छुआछूत की वैज्ञानिकता को न ही देखा और न ही सही तरीकों से अपनाया। आशा है अब वैज्ञानिको द्वारा स्वीकृत यह छुआछूत सदियों तक चलता रहेगा और फिर से वह सब नहीं होगा जो पहले भी नहीं होना चाहिए था।
अब आप को बुरा नहीं लगता यदि कोई व्यक्ति आप को घर के दरवाजे से बाहर ही बिठा कर बात करे, दूर से नमस्कार करे और आप से शारीरिक दूरी बना कर रखे। पहले किसी संभावित संक्रमण से अपनी रक्षा के लिए यदि लोग दूसरे के बैठने के स्थान पर उसके जाने के बाद गंगाजल छिड़कते तो यह अवमानना थी परन्तु अब यह वैज्ञानिकता है। देखिये अभी आगे-आगे.. क्या पता, खाप-पंचायतों के संगोत्रीय विवाहों के सघन विरोध को भी आज से 50 साल बाद जीनोमिक्स के विकास होने पर वैज्ञानिक मान्यता मिले।
– आचार्य अज्ञातदर्शन आनंद नाथ जी के सौंदर्य लहरी पर प्रवचनों से उद्धृत